हिंदी साहित्य : हजारीप्रसाद द्विवेदी की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आलोचना पद्धति



 हिंदी साहित्य : छायावादोत्तर युग में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940), सूर साहित्य (1936), कबीर (1942), हिन्दी साहित्य (1952), हिन्दी साहित्य का आदिकाल इत्यादि आलोचनात्मक ग्रंथों की रचना करके हिन्दी साहित्य की भूमिका में ऐतिहासिक आलोचना पद्धति को प्रतिष्ठित किया।


उन्होंने साहित्य को सामाजिक, सांस्कृतिक और जातीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखा। उनकी आलोचना में उनका पाण्डित्य झलकता है। मानवतावादी और समाजशास्लीय दृष्टिकोण के कारण उनका पाण्डित्य आग्रहशील नहीं है।


हजारीप्रसाद द्विवेदी मूलतः शुक्ल संस्थान के आलोचक हैं। मानवतावाद और समाजशास्रीय दृष्टिकोण उनको शुक्लजी से अलग करता है। छायावाद के साथ जिस नुष्यता का सम्मान हुआ था, द्विवेदी जी ने उसे अपनी आलोचना में प्रमुख स्थान दिया।


कबीर की भाषागत विशेषता पर उनकी भावुकतापूर्ण दृष्टि पहली बार पड़ी थी। द्विवेदी जी का आधुनिक बोध और मानवतावाद रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित है। उसमें रोमानियत है


फिर भी वह मध्यकालीन मानवता से भिन्न है, क्योंकि उसकी मानवता का सम्बन्ध धर्म और ईश्वर से नहीं है। न तो वे आदर्शवादी हैं, न यथार्थवादी और न वैज्ञानिक मानवतावादी।

 

हिन्दी साहित्य नामक ग्रन्ध में उन्होंने सूर और तुलसी का मूल्यांकन मानवतावादी दृष्टि से किया है।

 

प्रेमचन्द की श्रेष्ठता को भी वे इसी तराजू पर तौलते हैं। उनकी आलोचना में समर्पण, विनम्रता, त्याग, साधना, संयम, तपश्चर्या आदि शब्दों की बार-बार आवृत्ति हुई है। उन्होंने मनुष्यता को रस और साहित्य का पर्याय माना है।

 

'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में उन्होंने सामग्री का पुनर्मूल्यांकन किया है, कबीर के विवेचन में परम्परागत मान्यताओं को झकझोरा है


मध्यकालीन साहित्य को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में देखा है और बिहारी को रीतिवद्धता या सिद्धता के घेरे से बाहर निकला है। वे युगानुरूप नई आलोचना दृष्टि और पद्धति पर जोर देते हैं।

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