हिन्दी के आधुनिक काल के कुछ आचार्यों के विचार यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
साधारणीकरण के विषय में डॉ. श्यामसुन्दर दास के विचार हैं- "साधारणीकरण कवि है अथवा भावक की चित्तवृत्ति से सम्बन्ध रखता है।
चित्त के एकाग्र और साधारणीकृत होने पर सभी कुछ साधारण प्रतीत होने लगता है। आचायों का अन्तिम सिद्धान्त तो यही है जो हमने माना है।
हमारा हृदय साधारणीकरण करता है।" वे साधारणीकरण की स्थिति योग की मधुमति, भूमिका के सदृश मानते हैं। पण्डित केशवदास के अनुसार मधुमति भूमिका चित्त की वह विशेष अवस्था है
जिसमें वितर्क (सम्बन्ध और सम्बन्धी का भेट) की सत्ता नहीं रह जाती। साधारणीकरण को योग की मधुमति भूमिका बताना अनुचित है, क्योंकि योग में रागात्मक सरसता नहीं होती।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
शुक्लजी ने 'चिन्तामणि' प्रथम भाग में साधारणीकरण की विवेचना इस प्रकार की है-
(1) पाठक या ओता के मन में काव्य के द्वारा जो व्यक्ति या वस्तु विशेष उपस्थित होकर काव्य के 'आश्रय' के लिए किसी भाव का आलम्बन बनती है, वह व्यक्ति वस्तु पाठकों के लिए भी उसी भाव का आलम्बन बनती है, जैसे शकुन्तला, नाटक में दुष्यन्त के लिए रति-भाव की आलम्बन है तो वह पाठकों या दर्शकों में भी रति-भाव का उदय
(2) कवि जिस व्यक्ति-विशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना करता है तो पाठक या श्रोता की कल्पना में भी वहीं व्यक्ति विशेष रहता है।
हाँ, कभी-कभी पाठक या सहृदय की कल्पना में समान धर्मवाली कोई मूर्ति विशेष प्रेयसी की मूर्ति आदि आ जाती है। यदि किसी ने प्रेम ही नहीं किया हो तो किसी अन्य सुन्दरी की मूर्ति कल्पना में आ जायेगी।
(3) साधारणीकरण आलम्बन-धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है किन्तु उसमें सामान्य धर्म की प्रतिष्ठा हो जाती है।
यह दशा एक प्रकार की रस-दशा हो है, यद्यपि इसमें आश्रय के साथ तादात्म्य और आलम्बन का साधारणीकरण नहीं होता । यह मध्यम कोटि की रसात्मकता है।
इस दशा में भी एक प्रकार का तादात्म्य और साधारणीकरण होता है। तादात्म्य कवि के उस अव्यक्त भाय के साथ होता है, जिसके अनुरूप वह पात्र का स्वरूप संघटित करता है।
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