इसी सहदयता के कारण उनमें भावनाएँ उदीप्त होती रहती हैं और उनके भीतर बो कलाकार होता है वह उन भावनाओं को अलंकृत कर देता है।
भावनाओं को उद्दीप्त करने में मानसिक उज्ज्वलता का हाथ रहता है। यही मन की उज्ज्वलता मन को उद्दीप्त करती हुई वाणी को भी उद्दीप्त कर देती है।
मन भी उज्ज्वलता आवेग से निष्पन्न होती है और वाणी में उन्बलता अतिशयोक्ति द्वारा आती है। इस प्रकार अलंकारों का मूल कारण भावोद्दीपन ही है। इस प्रकार अलंकार-विधान के पीछे मनोविज्ञान का दो प्रकार का प्रभाव रहता है-
(1) अलंकार पन का विस्तार करते हैं- किसी भी विषय को उक्ति-वैचित्र्य के रूप में उपस्थित करने के लिए अलंकार एक साधन मात्र है। उक्ति को रोचक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए अलंकार का प्रयोग किया जाता है।
ऐसा करने के लिए हम समान धर्म, लोक-प्रसिद्ध वस्तुओं की तुलना करके अपने कथन को स्पष्ट करते हैं ताकि वह कथन श्रोता द्वारा भली प्रकार प्रहण किया जा सके।
बात को बढ़ा-चढ़ा कर उसके मन का विस्तार करते हैं, उसमें बाहरी विषमता का नियोजन करके आश्चर्य की उद्भावना करते हैं, अनुक्रम या औचित्य की प्रतिष्ठा करके श्रोता की वृत्तियों को अन्वित करते हैं।
बात को घुमा फिरा कर चक्र बनाते हैं और बुद्धि-कौशल से उसमें कौतूहल
उत्पन्न करते है। इसलिए दण्डी ने अतिशयोक्ति को समस्त अलंकारों का मूल माना है।
भामह ने वक्रोक्ति और वामन ने उपमा या चमत्कार को ही अलंकार का केन्द्र स्वीकार
किया है।
(2) अलंकार मनोवृत्तियों से सम्बद्ध है- कवि की सौन्दर्य-प्रियता के कारण ही विभिन्न प्रकार के अलंकारों का अस्तित्व सामने आता है। अलंकार मनोवृत्तियों से सम्बद्ध हैं। कवि अपनी-अपनी रुचि भिन्नता के अनुसार ही अलंकारों का प्रयोग करते हैं। इसीलिए अलंकारों में मनोविज्ञान सम्मत मनोवेग झलकते हैं।
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