Hindi Sahitya: मार्क्सवादी अथवा प्रगतिवादी आलोचना का मुख्य आधार वर्ग संघर्ष और अर्थ वैषम्य है। यह पद्धति साहित्य का मूल्यांकन, साहित्य की तुलना पर नहीं, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की कसौटी पर कसकर करती है।
इस प्रणाली के आलोचक की दृष्टि से सम्पूर्ण सृष्टि और उसका इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है और उसका मूलाधार अर्थ वैषम्य है। इस प्रकार युग परिस्थित्तियों के परिपार्श्व में साहित्य को मूल्यांकन करना ही इस पद्धति का मुख्य लक्ष्य है।
मार्क्सवाद का दृष्टिकोण भारत में प्रगतिवाद को मार्क्सवाद का हो पर्याय माना जाता है। यह एक जीवन दृष्टि है जो आदर्श और कल्पना के स्थान पर यथार्थ से जुड़ी हुई है।
मार्क्सवादी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विचारधारा इस श्रेणी के साहित्य में व्यक्त हुई है और आलोचक भी खोद-खोदकर उन्हीं मूल्यों का साहित्य में संधान करता है।
पूँजीवादी, साम्राज्यवादी, शोषण, अन्याय, अत्याचार और दमन का विरोध करके सामाजिक साम्यमूलक जीवन दृष्टि से साहित्य को सम्पन्न करना प्रगतिवादी साहित्यकारों और आलोचकों का उद्देश्य रहा है।
भारत में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना से विचारधारा के साहित्य सृजन और आलोचना दृष्टि को बहुत बल मिला है।
सन् 1935 में प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचन्द ने प्रगतिशीलता की एक रूप-रेखा साहित्यकारों तथा आलोचकों के सामने रखी।
उन्हीं सूत्रों का व्यापक परिप्रेक्ष्य में तथा मार्क्सवाद के साथ उसे समन्वित करके हिन्दी की प्रगतिवादी आलोचना विकसित हुई है।
यह आलोचना पद्धति बुद्धिवाद के निकट है अतः इसमें अतिशयोक्ति, चमत्कार, आलंकारिता आदि का विशेष महत्त्व नहीं है।
मार्क्सवादी आलोचना में डॉ. नामवर सिंह, अमृतराय, रामेश्वर शुक्ल अंचल, नरेन्द्र शर्मा, मन्मथ नाथ गुप्त आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
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